Pages

Search This Blog

Sunday, April 3, 2011

सामाजिक विकास -- एक विस्तृत व्याख्या

सामाजिक विकास एक बहुआयामी पद (टर्म) है, इसे कुछ निश्चित परिभाषाओं या सीमाओं के अंतर्गत देखना कठिन है. सामाजिक विकास को परिभाषित करने से पहले हमें विकास को जानना ज़रूरी है. विकास का अर्थ एक निश्चित स्थिति से आगे की ओर प्रगति, परिवर्तन और उन्नति से है और प्रगति-परिवर्तन की यह   मात्रा  और गुण दोनों स्पष्ट रूप से दिखाई देने चाहिए.  समाज के हर तबके की उसमे हिस्सेदारी हो कोई वंचित या छूट गए या खो गए लोग नहीं होने चाहिए ....तभी हम मान सकते हैं  कि विकास की दिशा और दशा सही जा रही है.   

सामाजिक विकास एक समग्र प्रक्रिया है जो अपने भीतर एक निश्चित समाज की समस्त संरचनाओं यथा ----आयु, लिंग, सम्पत्ति तथा संस्थाओं जैसे ---परिवार, समुदाय, जाति, वर्ग, धर्म, शिक्षा आदि को समेटे है. उदाहरण के लिए एक आदिम जनजातीय समाज  की संरचनाएं और उनसे जुड़े रीति-रिवाज एक आधुनिक समाज से पूर्णतया भिन्न होंगी. जनजातीय समाज मुख्यतया   कुल, परिवार, रक्त सम्बन्ध आधारित होता है, जबकि आधुनिक समाजों का गठन हम देखते हैं कि कहीं अधिक जटिल और विस्तृत है.     

वर्तमान आधुनिक और उत्तर आधुनिक समाजों में विकास को शिक्षा के प्रसार से पैदा हुई जागरूकता और धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र के कमज़ोर होते हुए बंधनों, महिलाओं और विभिन्न समूहों की स्थिति में आये परिवर्तन और सामाजिक स्तरीकरण में उनकी  उर्ध्वाधर प्रगति और इसके अलावा समाज में बन  रही नवीन संरचनाओं व संस्थाओं के रूप में देखा जा सकता है.          


पहले बात की  जाए इन नई  संरचनाओं की, जो सामाजिक विकास के प्रत्यक्ष परिणामों को दिखाती हैं. ....

शिक्षा के प्रसार ने लोगों के मानसिक-बौद्धिक स्तर को उठाया , उनके लिए नए आर्थिक अवसरों और क्षेत्रों को जनम दिया . सबसे  महत्वपूर्ण  लोगों को अपने अधिकारों की जानकारी, उन्हें प्राप्त करने और उनकी सुरक्षा के विषय में सचेत किया. शिक्षा ने लोगों को उन्मुक्त किया , उन्हें परम्परागत बंधनों व रुढियों की फिर से समीक्षा करने को प्रेरित किया है. महिलाओं का पुरुषों के प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में काम करना, देर रात तक काम करना , लड़कियों की शिक्षा -व्यवसाय और  विवाह के प्रति  बदलती मानसिकता और समाज द्वारा उनकी स्वीकृति ( लिव  इन, सिंगल मदर) ये सब विकास की ही प्रक्रिया का अंग हैं.

 क़ानून  के क्षेत्र में जनहित याचिकाएं, न्यायिक सक्रियता जिससे लोगों की न्याय तक पंहुच आसान  हुई. सामाजिक सुरक्षा के प्रति  सरकारों की संवेदनशीलता और तत्संबंधी कानूनों का निर्माण   (भारत में RTE , RTF , RTI ) ये सब एक समाज के परिपक्व होने , उसके लोकतंत्रीकरण और उसके नागरिकों के अधिकारों की स्थापना का परिचायक है. समाज में लैंगिक भेदभावों का कम होना,  विभिन्न वंचित तबकों का समाज की मुख्य धारा में शामिल होना ये सब सामाजिक विकास के विविध राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक पहलुओं को दिखाता है.  

सामाजिक विकास की बात करते समय हम राजनीति और अर्थ को उपेक्षित नहीं कर सकते. क्योंकि यही किसी भी समाज को चलाने  वाली दो प्रमुख चालक  शक्तियां हैं, बहुत सीमा तक विकास प्रक्रिया की सफलता-असफलता इन्ही दो बिन्दुओं पर परखी  जाती है.  

आर्थिक संकेतकों  में गरीबी, रोज़गार की उपलब्धता, भोजन और अन्य मूलभूत आवश्यकताओं  की पूर्ति किस सीमा तक हो रही है, आय की विषमताएं और आर्थिक अवसरों और  उनसे पैदा होने वाले सामाजिक तनावों  आदि  को मुख्य   रूप से देखा जाना चाहिए  .. 
 लेकिन सामाजिक विकास क केवल इन्ही दो बिन्दुओं पर नहीं आँका जा सकता ..क्योंकि ऐसा  देखा गया है कि कई देशों में आर्थिक या राजनीतिक विकास तो हुआ लेकिन सामाजिक दृष्टि से पिछड़ापन और सामंती समाज की प्रथाएं बनी रहीं है..जैसे मध्य पूर्व के देशों जैसे ईरान या सउदी अरब में हम देखते हैं कि अर्थव्यवस्था तो पर्याप्त  विकसित हैं  लेकिन  लोगों को नागरिक स्वतंत्रताएं नहीं मिली हैं.  महिलाओं की सार्वजानिक  भागीदारी पर बहुत सी बंदिशें हैं, धार्मिक सहिष्णुता का भी अभाव है...  यूरोप और शेष विकसित देशों  में हम देखते हैं कि समाज का ढांचा बिखरने की  स्थिति में आ गया है..इसलिए वहाँ आर्थिक और राजनीतिक विकास होते हुए भी एक सामाजिक संकट की स्थिति है..

भारत जैसे देश में राजनीतिक विकास हुआ है पर सामाजिक विकास के नज़रिए  से अभी  हम बहुत पीछे हैं,  दलितों पर अत्याचार की  घटनाएं,  कन्या भ्रूण हत्या (हालिया जनगणना के आंकड़े) , ग्रामीण क्षेत्रों और विशेषतः महिलाओं  की  स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ी हुई स्थिति, नक्सल प्रभावित  क्षेत्रों को हम चाहे क़ानून -व्यवस्था की समस्या कहें या आर्थिक हितों का संघर्ष कहें लेकिन ये भी हमारे सामाजिक व्यवस्था की विफलता को ही दिखाता है क्योंकि हम उन्हें समाज कि मुख्य धारा में शामिल नहीं कर पाएं हैं..   गरीबी और भुखमरी की गंभीर समस्या, जातिवाद और आरक्षण  की राजनीति का बढता प्रभाव, ये सब सामाजिक विकास की बड़ी खामियों   को दिखाता है.... 

 सामाजिक विकास की बात करते वक़्त हम आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण   और आधुनिक संचार/सूचना तकनीक के पक्ष को रेखांकित करना नहीं भूल सकते. क्योंकि ये महज़ एक प्रक्रिया नहीं अपितु अपने आप में एक क्रान्ति है, जिसने सामाजिक विकास की प्रक्रिया की गति को तीव्रतर  कर दिया है..

उदारीकरण और वैश्वीकरण ने हमें चुनाव की आज़ादी दी, अपनी अलग पसंद बनाने की आज़ादी , अपने लिए बेहतर या सर्वश्रेष्ठ  सेवाएं/ वस्तुएं पाने की आज़ादी दी है. सूचना/ संचार क्रांति ने सभी परम्परागत सामाजिक-सांस्कृतिक  बंधनों को तोड़ दिया है या यूँ कहें कि उन्हें एकदम  हाशिये पर धकेल दिया है   अब हमारे सामजिक सम्भंधों को बनाये रखने और उन्हें विस्तृत करने में मोबाइल फोन, पर्सनल कंप्यूटर, फेसबुक, ट्विटर महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे हैं. 

"संस्कृति"  "ग्लोबल" होती जा रही है और "ग्लोब"  "लोकल" हो रहा है.....अब चूँकि हर सवाल का जवाब गूगल या याहू पर उपलब्ध है..ऐसे में समाज और उसका विकास केवल अपने आस-पास के वातावरण से नहीं अपितु वैश्विक सन्दर्भों से भी प्रभावित होता है. उदाहरण  के लिए सरकार जब भी सामाजिक सरोकारों से जुडी कोई नीति/योजना  बनाती है फिर चाहे वो जनसँख्या नियंत्रण, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा  या चाहे क़ानून व्यवस्था का मुद्दा हो..  हम तुरंत उसकी तुलना विश्व के विभिन्न हिस्सों में चल रही वैसी ही अन्य योजनाओ से करते हैं..उसे जांचते  हैं और उसे  अपने सन्दर्भ में लागू करने के लिए सुझाव ढूंढ लाते  हैं..


अंततः सामाजिक विकास का कोई निश्चित प्रतिमान या खाका नहीं हो सकता .. सामाजिक विकास कहने और देखने में भले ही एक सामूहिक प्रक्रिया है लेकिन इसके प्रभाव और परिणाम व्यक्तिगत  स्तर पर ज्यादा  बेहतर ढंग से देखे जा सकते हैं.. और इसलिए  विकास  को विभिन्न सन्दर्भों जैसे आर्थिक सशक्तिकरण, राजनीतिक क्षमता निर्माण, महिलाओं, दलितों और आदिवासी समुदायों की बेहतर स्थिति, शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य और दूसरी सामजिक सुरक्षा योजनाओं की सार्वत्रिक गुणवत्ता युक्त उपलब्धता
आदि  में देखना  होगा.  

पितृसत्तात्मक  समाजों में महिलाओं की भूमिका और अधिकारों की स्वीकृति, सांस्कृतिक रूप से विविधतापूर्ण समाजों में विभिन्न समुदायों को समान अधिकार, स्वतंत्रताएं  और उनके बीच सामंजस्य , एशियाई समाजों में अपनी पुरानी सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत का तालमेल आधुनिक मान्यताओं के साथ बिठाना विकास के  मुख्य मुद्दे हैं.  

 भारत के संदर्भ में उपरोक्त  सभी मानदंड लागू होते हैं, अतः हमारे लिए एक समग्र और समावेशी विकास प्रक्रिया की आवश्यकता है. ..जिसमे राजनीतिक और आर्थिक परिलाभों का समान और न्यायपूर्ण वितरण भी शामिल हो...साथ ही हमें ये भी समझ लेना चाहिए  कि सामाजिक विकास कोई नीति निर्माण, सरकारी कानूनों या निर्णयों से निर्देशित या नियंत्रित होने की चीज़ नहीं  है..इसके बजाय इसका सीधा सम्बन्ध  प्रगतिशील मानसिकता, समय के अनुसार खुद को ढालने और सामंजस्य बिठाने और नए तथा पुराने के बीच एक समन्वय पर आधारित जीवनशैली से है.

1 comment:

  1. समाज अपने आप में एक बहुत ही वृहत शब्द है | सामाजिक विकास की यदि बात भी की जाय तो बहुत से पहलू छूट जाते है, ऐसे में सामाजिक विकास पर कोई टिप्पड़ी करना कहा तक तर्कसंगत है | यह बात सही है कि विकास हुआ है, हर संस्कृति हर सभ्यता में होता है, इतिहास इसका साक्षी है | परन्तु जिस द्रुत गति से हमारा समाज विकसित होना चाहिए का वो गति वो लय आपको आज के परिवेश में दिखती है ? जहाँ तक समाज के बहुआयमी विकास का सवाल है, विकास तो हुआ है पर हम अब भी बहुत पिछड़े है | हमारे साथ के बहुत से देश सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से हमसे बहुत आगे निकल गए है और इसका कारण भी कही न कही हम ही है...

    ReplyDelete